गिर्दा से जुड़ी एक अनोखी कहानी जो मुझे उत्तराखंडी होने पर गर्व करवाती है
गिरीश तिवारी जिन्हें हम सब प्यार से गिर्रदा कहते हैं. उत्तराखंड के इस जनकवि के बारे में मुझे इनकी मौत के क़रीब तीन साल बाद यानि साल 2009 में जानकारी मिली. इसके बाद मैंने इनके बारे में थोड़ा बहुत रिर्सच की तो मुझे खुद के पहाड़ी होने पर शर्म महसूस हुई. कैसे 21 साल की उम्र तक मैं इनके बारे में नहीं जान पाया. आज इंटरनेट और संचार के माध्यम में लोग अख़बार और टीवी न्यूज़ चैनलों पर निर्भर नहीं है. सोशल मीडिया और यूट्यूब के दौर में गिर्दा घर-घर पहुँच रहे हैं. शायद ही कोई ऐसा उत्तराखंड का जनआंदोलन हो जिसमें उनके गीत न गाए जाते हो. मेरी गिर्दा के बारे में समझ ये है कि वो लोगों के बीच सहज महसूस करते थे, लोगों के लिए गाते थे और लोगों की बात करते थे. मुझे जानकारी मिली है कि उनके बेटे ने करण जोशी नाम के एक शख़्स के यूट्यूब चैनल पर इसलिए स्ट्राइक करा दी क्योंकि उसने गिर्दा के गाने गाए थे. मुझे नहीं पता कि किस वजह से और क्यों कॉपीराइट का दावा उन्होंने किया. उन्होंने तो और भी गर्व होना चाहिए कि इस युवा पर कि वो हमारे गिर्दा को अपने तरीक़े से लोगों तक पहुँचा रहा है. जन कवि को कभी बांधे नहीं रखा जा सकता है. अनुपम मिश्र अपनी किताबों पर कोई कॉपीराइट नहीं रखते थे. मुझे पूरा भरोसा है कि गिर्र दा भी ऐसा ही करते. आखिर वो ये सब पहाड़ के लोगों को जगाने और हमारी संस्कृति और धरोहर को बचाने में ही तो कर रहे थे.